भारत ने पहली बार टीबी की दवा बनाने में पायी सफलता

भारत ने टीबी के ईलाज के लिए प्रयोग की जाने वाली दवा का आविष्‍कार किया है, इसके बारे में अधिक जानने के लिए इस स्‍वास्‍थ्‍य समाचार को पढ़ें।

एजेंसी
Written by: एजेंसीUpdated at: Dec 09, 2013 12:31 IST
भारत ने पहली बार टीबी की दवा बनाने में पायी सफलता

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टीबी बहुत ही घातक बीमारी है, और इसके मरीजों की संख्‍या भारत में बहुतायत है। इसके ईलाज के लिए भारत सरकार दवाओं को विदेश से आयात करता है। लेकिन हाल ही में पहली बार टीबी की दवा भारत में बनाने में सफलता हासिल की है।

TB medicine in india भारत में विकसित टीबी की पहली दवा का चिकित्‍सकीय परीक्षण जल्द किया जायेगा। इस दवा का विकास वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद् (सीएसआईआर) ने अपने ओपन सोर्स ड्रग डिस्कवरी (ओएसडीडी) कार्यक्रम के तहत किया है।



भारत में विकसित टीबी की यह पहली दवा है। इसके परीक्षण के लिए दिल्ली के लेडी श्रीराम हॉस्पिटल फॉर रेस्पिरेटरी एंड इनफेक्शस डिसीज में मौजूद मरीजों के बीच किया जायेगा।



इससे पहले भारत में टीबी के ईलाज के लिए 1950 और 60 के दशक में विकसित की गई मुख्यत: चार दवाओं के भरोसे होता आ रहा है। इसके कारण भारत में टीबी के ऐसे मामले तेजी से बढ़ रहे हैं, जिन पर बहुत सी दवाओं का असर नहीं होता है।



टीबी के साथ एड्स के भी मिल जाने से समस्या और गंभीर हो रही है। मुंबई और अन्‍य ईलाकों में हाल में सामने आए टीबी के मामलों ने इस बीमारी के लिए सटीक दवाइयों की कमी की ओर इशारा किया है।



टीबी को आमतौर पर गरीबों की बीमारी माने जाने के कारण दवा कंपनियों की इसकी नई दवाएं खोजने में कोई रुचि नहीं होती। इसी कारण सीएसआईआर ने ओएसडीडी प्रोग्राम की शुरुआत की।



इसके तहत दुनिया भर की लैब्स और संस्थानों से टीबी की नई दवाएं खोजने की अपील की गई। सीएसआईआर ने इस कार्यक्रम के लिए चुनी गई लैब्स और संस्थानों को वित्तीय मदद भी मुहैया कराई।



अगर यह दवा कामयाब होती है तो भारत जैसे देश को इसका सबसे अधिक फायदा होगा, जहां दुनिया में टीबी के सबसे ज्यादा मरीज हैं। इसके बाद सीएसआईआर मलेरिया और काला आजार की दवाएं भी बनाएगा।



देश में टीबी के कारण हर दो मिनट में एक व्यक्ति मौत के मुंह में समा जाता है। दुनिया में टीबी के 20 फीसदी मरीज भारत में हैं। दुनिया की एक तिहाई आबादी आज भी टीबी की चपेट में है। इसमें से 80 फीसदी लोग दुनिया के सबसे गरीब देशों के निवासी हैं। दुनिया में हर साल करीब 20 लाख लोग इसके कारण मौत के मुंह में समा रहे हैं।

 

 

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